ईसाई जीवन: जो प्रभु की मंशा के अनुरूप दूसरों के साथ आपसी संवाद करने का तरीका सिखाते हैं
साथी संबंध एक ऐसा विषय है जो कई लोगों के दिलों में दर्द और असहमति का कारण बना रहता है। यह विषय विशेष रूप से उन ईसाई व्यक्तियों के लिए महत्वपूर्ण है जो प्रभु यीशु की शिक्षाओं को अपने जीवन में अमल में लाने के इच्छुक हैं। हालांकि, हम दूसरों के साथ संवाद करते समय अक्सर विवाद और गलतफहमियों का सामना करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप हमारे संबंध दुखदायक रूप में प्रभावित हो सकते हैं। यह समस्या हर किसी को चिंतित करती है। हमें क्यों लगता है कि हम सही रूप से दूसरों के साथ संवाद नहीं कर पाते हैं? क्या हैं उन मार्गदर्शन के सिद्धांत जिनका अनुसरण करके हम बेहतर संबंध बना सकते हैं? मेरे अनुभव और शिक्षा के माध्यम से, मैं इस सवाल के उत्तर को साझा कर रहा हूं।
दूसरों के साथ उचित और समान व्यवहार करने का अपनाना चाहिए। हमें अपनी भावनाओं और पसंदों के आधार पर काम नहीं करना चाहिए। यीशु ने कहा: "यदि तुम अपने प्रेम रखनेवालों ही से प्रेम करो, तो तुम्हारे लिए क्या विशेषता है? क्या महसूल लेनेवाले भी ऐसा नहीं करते? यदि तुम केवल अपने संबंधियों को सलाम करो, तो तुम किस प्रकार कुशल हो? क्या अन्यजातियों भी ऐसा नहीं करती? इसलिए, तुम्हें परिपूर्ण होना चाहिए, जैसा तुम्हारा स्वर्गीय पिता परिपूर्ण है" (मत्ती 5:46–48)। प्रभु के वचनों से, हमें समझ मिलती है कि परमेश्वर की इच्छा है कि हम उनकी शिक्षाओं के अनुसार अपने संबंधों में व्यवहार करें। हमें अपने भावनाओं और पसंदों के आधार पर नहीं काम करना चाहिए। जब हम दूसरों के साथ बातचीत करते हैं, हमें उनके साथ सहयोग और अनुबंध बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए। हमें उनके समर्थन और समर्थन का साथ देना चाहिए, चाहे हम उनसे सहमत हों या न हों। हमें समानता, सहनशीलता, और प्रेम के साथ उनके साथ व्यवहार करना चाहिए, चाहे हमें वे पसंद हों या न हों। इस प्रकार के व्यवहार से ही हम परमेश्वर की इच्छा को पूरा करते हैं।
आपको अन्य लोगों को कम या ज़्यादा करके नहीं आँकना चाहिए। दूसरों की खूबियों से सीखें और अपनी कमियों को दूर करें। बाइबल कहती है: "विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो, पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो" (फिलिप्पियों 2:3)। परमेश्वर ने हममें से प्रत्येक को अलग-अलग क्षमता, प्रतिभा और खूबियां दी है। इस कारण से, अपने भाइयों और बहनों के साथ बातचीत करते समय हमें विनम्र दिल रखना चाहिए और हमें दूसरों की खूबियों और कमियों को सही ढंग से देखना चाहिए। हमें दूसरों को कम या ज़्यादा करके नहीं आँकना चाहिए। हमें दूसरों की खूबियों को ग्रहण करना चाहिए ताकि हम अपनी कमियों को दूर कर सकें। यदि हम अपनी खूबियों, क्षमता और प्रतिभा के कारण दूसरों को नीची दृष्टि से देखते हैं और असीम ढंग से अपनी ताकत बढ़ाते हैं, जिसके माध्यम से हम दिखावा करते हैं और डींगे हाँकते हैं, साथ ही दूसरों की आलोचना करते हैं, नीचा दिखाते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं, तो हम अपने अहंकारी और दम्भी भ्रष्ट स्वभाव द्वारा इस प्रकार से नियंत्रित किये जा रहे हैं। एक ईसाई को इस तरह का जीवन नहीं जीना चाहिए। उदाहरण के लिए, पहले, मैं हमेशा सोचती थी कि मेरी खुद की क्षमता अपने साथ काम कर रही एक बहन की तुलना में बेहतर थी, इसलिए मैं उसे नीची दृष्टि से देखती थी। एकसाथ हमारे काम के दौरान, मैं जाने-अनजाने में दिखावा करती थी और मेरा दिल अपने लिए घमंड से भरा हुआ था। मेरे भ्रष्ट स्वभाव के कारण परमेश्वर को मुझसे घृणा हो गयी और इसके कारण परमेश्वर ने मेरी ओर से अपना मुँह मोड़ लिया। मेरी आत्मा अँधेरी और निराशापूर्ण हो गई। मेरे काम में कई स्पष्ट समस्याएं थीं जिन्हें मैं खोज पाने में असमर्थ थी, जबकि इस बहन का काम धीरे-धीरे बेहतर होता चला गया। मैंने उस बारे में सोचा जो यीशु ने कहा था: "जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा: और जो कोई अपने आपको छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा" (मत्ती 23:12)। इसी समय मैंने देखा कि मैं कितनी अहंकारी थी। मैं खुद से अवगत नहीं थी। असल में, यह पवित्र आत्मा के काम के कारण है कि मेरे काम ने कुछ परिणाम उत्पन्न किये थे या मैं कुछ समस्याओं को खोजने में सक्षम थी। हालाँकि, मैंने अभी भी परमेश्वर का सम्मान चुराया था और मैं बेहद आत्मतुष्ट थी और अपने खुद के अहंकार की प्रशंसा करती थी। मैं अपने साथी भाइयों और बहनों को नीची दृष्टि से देखती थी। हकीकत में, मैं बहुत ही अविवेकी थी! साथ ही, मुझे पता था कि मुझे खुद को कैसे जाने देना है यह सीखने की जरूरत है। मुझे अपनी कमियों को दूर करने के लिए उस बहन की खूबियों को खुले दिमाग से आत्मसात करना था। केवल अगर मैंने ऐसा किया तभी परमेश्वर प्रसन्न होगा और मेरा जीवन लगातार बढ़ेगा। नतीजतन, मैंने ऐसा करना शुरू कर दिया। जब ऐसी समस्याएं आतीं जिन्हें मैं समझ नहीं पाती थी, तो मैं उस बहन से उसकी सलाह माँगती। अगर मैं मुद्दों का सामना करती, तो मैं उनके साथ उन पर चर्चा करती। तब मैंने पाया कि वास्तव में उसमें ऐसी कई खूबियां थीं जिनका मुझमें अभाव था। मेरे दिल ने बहुत अपमानित महसूस किया। मैं यह भी समझ गयी कि परमेश्वर ने ऐसी व्यवस्था की थी कि मैं इस बहन के साथ काम करूँ क्योंकि वह चाहता था कि मैं अपनी कमियों को दूर करूँ। वह चाहता था कि जो काम उसने हमें सौंपा था उसको करने के लिए हम सामंजस्यपूर्ण रूप से सहयोग करें। धीरे-धीरे, इस बहन के साथ मेरा रिश्ता सामान्य हो गया और मुझे एक बार फिर पवित्र आत्मा का काम प्राप्त हुआ।
जब आप यह पाते हैं कि अन्य लोग ऐसी चीज़ें करते हैं जो आपके विचारों से मेल नहीं खाती हैं, तो दूसरे व्यक्ति पर अपनी नज़रें न गड़ायें। इसके बजाय, आपको पहले खुद को पहचानना चहिये और सत्य का अभ्यास करना चाहिये।
यीशु ने कहा: "तू क्यों अपने भाई की आँख के तिनके को देखता है, और अपनी आँख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता? जब तेरी ही आँख में लट्ठा है, तो तू अपने भाई से कैसे कह सकता है, 'ला मैं तेरी आँख से तिनका निकाल दूँ?' हे कपटी, पहले अपनी आँख में से लट्ठा निकाल ले, तब तू अपने भाई की आँख का तिनका भली भाँति देखकर निकाल सकेगा" (मत्ती 7:3–5)। जब हम दूसरों के साथ बातचीत करते हैं, तो कुछ टकराव और पूर्वाग्रह होना निश्चित है। इन क्षणों पर, हमें इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि दूसरा पक्ष क्या गलत कर रहा है और हमेशा यह नहीं मानना चाहिए कि दूसरे पक्ष की ही गलती है। इसके बजाय, हमें परमेश्वर के सामने आना और परमेश्वर के वचन के भीतर सत्य को तलाशना सीखना चाहिए ताकि हम यह पता लगा सकें कि हमारी अपनी समस्याएं कहाँ हैं। एक बार जब हम परमेश्वर के इरादे को समझ लेते हैं और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समझ पा लेते हैं, तो हम खुद को अन्य लोगों की जगह रख कर देख पाएंगे और चीजों को उनके नज़रिए से समझ पाएंगे। हम दूसरों को समझ पायेंगे, उनके साथ सहानुभूति रखने और सहिष्णु होने में सक्षम होंगे। इस बिंदु पर, दूसरों के लिए हमारा पूर्वाग्रह स्वाभाविक रूप से कम हो जाएगा।
इस पहलू के संबंध में मुझे कुछ गहरे अनुभव हुए हैं। मुझे याद है कि एक बहन जिसके साथ मैंने काम किया था, उसने कई बार यह इशारा किया कि कलीसिया के काम के संबंध में मैंने अपना दायित्व नहीं निभाया था। हालाँकि, न केवल मैं इसे परमेश्वर से प्राप्त करने में असमर्थ थी, वास्तव में, मुझे यह भी संदेह था कि यह बहन जान-बूझकर मुझमें मीन-मेख निकाल रही थी और मेरी जिंदगी मुश्किल बना रही थी। मेरे दिल ने इस बहन की तरफ पूर्वाग्रह पैदा करना शुरू कर दिया और अब मैं इस बहन के साथ सेवा नहीं करना चाहती थी। जब मैंने परमेश्वर के वचन को पढ़ा और परमेश्वर की मंशा को ढूंढा, तो मुझे समझ में आया कि मेरा स्वयं का अहंकारी और दम्भी शैतानी स्वभाव मुझे नियंत्रित कर रहा था और मुझे इस बहन के सुझावों को स्वीकारने नहीं दे रहा था। इससे मुझे उसके बारे में संदेह भी हुआ। इसी कारण इस बहन के साथ सामान्य बातचीत करने में मैं असमर्थ हो गयी। साथ ही, मुझे पता था कि जिन लोगों, घटनाओं और चीजों का मैं हर रोज सामना करती थी, सभी परमेश्वर द्वारा निर्देशित और व्यवस्थित थे। यह परमेश्वर था जो सावधानी से इन चीजों को मुझे बदलने और बचाने के लिए व्यवस्थित कर रहा था, न कि वह बहन जानबूझकर मेरे लिए चीजों को मुश्किल बनाना चाहती थी। मुझे परमेश्वर को समर्पण करना चाहिए, खुद को जाने देना और उस बहन के सही सुझावों को स्वीकार करना सीखना चाहिए। इसके बाद, मैं परमेश्वर के सामने गयी और खुद पर विचार किया। बहन के सुझावों से, मैं देख सकती थी कि वास्तव में मैं कलीसिया के काम के संबंध में अपनी जिम्मेदारियों को नहीं उठा रही थी। जो भी अगुवा मेरे लिए करने की व्यवस्था करते थे, मैं वो करती थी, फिर भी मैंने कभी यह नहीं सोचा कि मैं कलीसिया के काम को और भी बेहतर कैसे कर सकती हूँ। एक बार जब मैं परमेश्वर के इरादे को समझ गयी, तो मैं चीजों को परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप करने लगी। मैंने सक्रिय रूप से और खुले दिल से इस बहन के सामने अपना भ्रष्टाचार प्रकट किया और मैंने परमेश्वर से भी मुझे और अधिक ज़िम्मेदारियाँ देने को कहा। जब मैंने परिस्थितियों का सामना किया, तो मैंने इस बारे में और सोचा कि मैं कलीसिया को कैसे लाभ पहुंचा सकती हूँ। जब मैं चीजों को इस तरह से अभ्यास में लायी, तो एक समय जो गलतफहमी इस बहन के साथ हुआ करती थी वो खत्म हो गयी। हम आध्यात्मिक रूप से जुड़ गये और जो सद्भावना पहले हमारे बीच थी, वो एक बार फिर बहाल हो गयी।
अभ्यास के चार सिद्धांत वे चीजें थीं जिन्हें मैंने अपने अनुभवों से सीखा था। मैंने सचमुच अनुभव किया कि एक ईसाई के जीवन में परमेश्वर का वचन मार्ग दिखाने वाला प्रकाश है। यह हमारे पथ के लिए दिशासूचक है। परमेश्वर के वचन के मार्गदर्शन के बिना, हमारे पास चलने को कोई रास्ता नहीं होगा। हमें बस इतना करना है कि हम परमेश्वर की शिक्षाओं को अभ्यास में लायें और सभी के साथ समान रूप से व्यवहार करें। केवल तभी हम वास्तविक मनुष्य के समान जीवन जीने में सक्षम होंगे, दूसरों के साथ अच्छी तरह से मिल-जुलकर रह पाएंगे, हमारे आस-पास के लोगों को लाभ पाने देंगे, साथ ही, हम परमेश्वर को संतुष्ट करने और हमें सराहने का कारण देंगे।
परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए उसका धन्यवाद। परमेश्वर की महिमा बनी रहे!
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