मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है
"प्रत्येक व्यक्ति की नजर में परमेश्वर का प्रबंधन एक अद्वितीय विचार है, क्योंकि लोग परमेश्वर के प्रबंधन को मानव से पूरी तरह से अलग समझते हैं। वे समझते हैं कि परमेश्वर का प्रबंधन केवल उसी का कार्य है और उससे केवल वही संबंध रखता है—इसलिए मानव उसके प्रबंधन के प्रति उदासीन हो जाते हैं। इस प्रकार, मानवता का उद्धार अज्ञात और अनिश्चित हो जाता है, और वे अब खोखली बयानबाजी में पड़ जाते हैं। हालांकि मानव उद्धार प्राप्त करने और अद्भुत गतिशीलता में प्रवेश करने के लिए परमेश्वर का अनुसरण करता है, किन्तु उसे इस बात की परवाह नहीं है कि परमेश्वर अपना कार्य कैसे करता है। मानव इस बात की परवाह नहीं करते कि परमेश्वर ने कौनसी योजना बनाई है, न ही वह इस बात की चिंता करता है कि उसके उद्धार के लिए उसे क्या भूमिका अदा करनी चाहिए। यह दुखद है! मानव उद्धार परमेश्वर के प्रबंधन से अलग नहीं किया जा सकता, और उसे परमेश्वर की योजना से अलग नहीं किया जा सकता है। फिर भी, मानव उद्धार परमेश्वर के प्रबंधन के बारे में कुछ भी नहीं सोचता, और इस प्रकार वह परमेश्वर से और भी अधिक दूर होता जाता है। इससे वे लोग बढ़ रहे हैं, जो उद्धार के मुद्दों से घनिष्ठता से जुड़े हैं—जैसे कि सृष्टि क्या है, परमेश्वर में विश्वास क्या है, परमेश्वर की आराधना कैसे करें, इत्यादि—ताकि वे परमेश्वर के अनुयायियों के समूह में शामिल हो सकें। इसलिए, अब हमें परमेश्वर के प्रबंधन पर विचार करने की आवश्यकता है, ताकि हर व्यक्ति को यह स्पष्ट हो कि उसके अनुसरण और विश्वास में क्या अर्थ है। ऐसा करने से प्रत्येक व्यक्ति को परमेश्वर का अनुसरण मात्र आशीर्वाद प्राप्त होगा, जिससे वह अपने उद्धार के प्रश्नों के लिए सही मार्ग का चयन कर सकेगा, बिना कि वह इसे निराशा, डर या भ्रम से देखे।"
"हालाँकि परमेश्वर का प्रबंधन गहरा होता है, लेकिन यह मानव की समझ से परे नहीं होता। इसका कारण यह है कि परमेश्वर का संपूर्ण कार्य मानव के प्रबंधन और उद्धार के कार्य से गहराई से जुड़ा होता है, और यह मानव जीवन, रहन-सहन और मंज़िल से संबंधित होता है। परमेश्वर मानव के बीच कार्य करता है, जिसे बहुत ही व्यावहारिक और अर्थपूर्ण कहा जा सकता है। वह मानव द्वारा देखा और अनुभव किया जा सकता है, और वह अमूर्त नहीं होता। यदि मानव परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले सभी कार्यों को स्वीकार करने में अक्षम है, तो उसके कार्य का महत्व ही क्या है? और इस प्रकार का प्रबंधन मानव को उद्धार की ओर कैसे ले जा सकता है?
परमेश्वर का अनुसरण करने वाले बहुत सारे लोग केवल आशीष प्राप्त करने की चिंता करते हैं या आपदा से कैसे बचा जा सकता है, और जब परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन का विषय उठाया जाता है, तो वे चुप हो जाते हैं और उनकी सारी रुचि समाप्त हो जाती है। इसे लेकर उन्हें लगता है कि इस प्रकार के उबाऊ मुद्दों को समझने से उनके जीवन के विकास में मदद नहीं मिलेगी या कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा। अतः, इन लोगों के लिए, परमेश्वर के प्रबंधन को स्वीकार करने का केवल एक सरल उद्देश्य होता है, और वह उद्देश्य है आशीष प्राप्त करना। इस विचार के आधार पर, उनका ध्यान अन्य किसी चीज पर नहीं होता जो इस उद्देश्य से सीधे संबंधित नहीं है।
आज के दिन परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों के लिए इस बात का निश्चित है कि उनके इरादे न्यायोचित होते हैं। जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए स्वयं को समर्पित करते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और अपना कर्तव्य भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी और अपने संसारिक सुखों को त्याग देते हैं, यहाँ तक कि अपने घर से दूर भी रहते हैं। अपने परम उद्देश्य के लिए वे अपनी रुचियों और जीवन के दृष्टिकोण को बदल देते हैं, और परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में अटल रहते हैं।
इस प्रकार, उनका व्यवहार उनके विश्लेषण के लिए पर्याप्त है। उनके संबंध में इतनी निकटता होने के बावजूद, जो लाभ पराप्त करने या अन्य किसी प्रकार की स्वार्थपरता के लिए नहीं होती, उन्हें यह समझने में कठिनाई होती है कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का संबंध कितना शर्मनाक और भद्दा है।"
मानव जाति की सबसे दुःखद बात यह है कि वह परमेश्वर के कार्यों के बीच अपने स्वार्थ का प्रबंधन करती है, जबकि परमेश्वर के प्रबंधन को अनदेखा करती है। मनुष्य की इस असफलता का मुख्य कारण यह है कि जब वह परमेश्वर की सेवा में समर्पित होने का प्रयास करता है, तो उसका ध्यान अक्सर अपनी आदर्श मंजिल की ओर नहीं, बल्कि अपने स्वार्थपरक लाभ या आशाओं की ओर होता है। यह एक दुःखद सत्य है कि अक्सर हम अपनी संगीन चाहतों और लाभ के प्रति ध्यान देते हुए, परमेश्वर के प्रति समर्पण में विफल रहते हैं।
हालांकि, हमें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर उस व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है जो उसके प्रबंधन में सहायक होने की केवल उम्मीद करता है, बल्कि उसे वह व्यक्ति चाहिए जो उसके प्रबंधन के कार्यों में निरंतर साथ देता है। परमेश्वर उन्हें चाहिए जो अपना जीवन परमेश्वर की सेवा में समर्पित करते हैं, उन्हें चाहिए जो अपने कर्तव्यों को निभाने में सचेत और निष्ठुर रहते हैं, और उन्हें चाहिए जो परमेश्वर के लिए सेवारत हैं बिना किसी अपेक्षा के उत्तम आशीर्वाद की।
इसलिए, हमें समझना चाहिए कि परमेश्वर का ध्यान उन लोगों को होता है जो उसके दिशानिर्देशों के अनुसार चलते हैं, जो उसके प्रबंधन के कार्यों में सहायक होते हैं, और जो उसके आदर्शों को समर्पित होकर प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। वह उन्हें घृणा नहीं करता जो उसके प्रबंधन के कार्यों को समर्थन नहीं करते, बल्कि वह उन्हें आशीर्वाद देता है जो उसके लिए काम करते हैं और उसकी सेवा में समर्पित होते हैं।
ब्रह्मांड और आकाश की अव्यापकता में अनगिनत जीव निवास करते हैं, जो जीवन के चक्रीय नियमों का पालन करते हैं और अटल नियमों का अनुसरण करते हैं। जो जीव मर जाते हैं, वे अपने साथ जीवित लोगों की कहानियाँ लेकर चले जाते हैं, और जो लोग जी रहे हैं, वे खत्म हो चुके लोगों के त्रासद इतिहास को ही दोहराते हैं। इसलिए, मानवजाति को अपने अस्तित्व के प्रश्नों का सामना करना पड़ता है: हम क्यों जीते हैं? और हमें मरना क्यों पड़ता है? इस संसार का नियंत्रण कौन करता है? और मानवजाति को किसने बनाया? क्या मानवजाति को वास्तव में प्रकृति माता ने बनाया? क्या मानवजाति वास्तव में अपने भाग्य की नियंत्रणक है?
ये सभी सवाल हैं, जो मानवजाति ने हजारों वर्षों से निरंतर पूछे हैं। दुर्भाग्य से, जितना अधिक मनुष्य इन सवालों के प्रति आकर्षित हुआ है, उतना ही अधिक प्यास विज्ञान के लिए विकसित हुई है। विज्ञान देह की संक्षिप्त तृप्ति और अस्थायी आनंद प्रदान करता है, लेकिन वह मनुष्य को उसकी आत्मा के भीतर की तन्हाई, अकेलेपन, बमुश्किल छिपाए जा सकने वाले आतंक और लाचारी से मुक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
मानवजाति केवल वही वैज्ञानिक ज्ञान का उपयोग करती है, जिसे वह अपनी खुली आँखों से देख सकती है और अपने मस्तिष्क से समझ सकती है, ताकि अपने हृदय को चेतनाशून्य कर सके। फिर भी यह वैज्ञानिक ज्ञान मानवजाति को रहस्यों की खोज करने से रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है। मानवजाति यह नहीं जानती कि ब्रह्मांड और सभी चीज़ों का संप्रभु कौन है, और मानवजाति के प्रारंभ और भविष्य के बारे में तो वह बिलकुल भी नहीं जानती।
मानवजाति केवल इस व्यवस्था के बीच विवशतापूर्वक जीती है। इससे कोई बच नहीं सकता और इसे कोई बदल नहीं सकता, क्योंकि सभी चीज़ों के बीच और स्वर्ग में अनंतकाल से लेकर अनंतकाल तक वह एक ही है, जो सभी चीज़ों पर अपनी संप्रभुता रखता है। वह एक ही है, जिसे मनुष्य द्वारा कभी देखा नहीं गया है, वह जिसे मनुष्य ने कभी नहीं जाना है, जिसके अस्तित्व पर मनुष्य ने कभी विश्वास नहीं किया है—फिर भी वह एक ही है, जिसने मनुष्य के पूर्वजों में साँस फूँकी और मानवजाति को जीवन प्रदान किया। वह एक ही है, जो मानवजाति का भरण-पोषण करता है और उसका अस्तित्व बनाए रखता है; और वह एक ही है, जिसने आज तक मानवजाति का मार्गदर्शन किया है। इतना ही नहीं, वह और केवल वही है, जिस पर मानवजाति अपने अस्तित्व के लिए निर्भर करती है। वह सभी चीज़ों पर संप्रभुता रखता है और ब्रह्मांड के सभी जीवित प्राणियों पर राज करता है। वह चारों मौसमों पर नियंत्रण रखता है, और वही है जो हवा, ठंड, हिमपात और बारिश लाता है। यह वही था, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी की व्यवस्था की, और मनुष्य को पहाड़, झीलें और नदियाँ और उनके भीतर के सभी जीव प्रदान किए। उसके कर्म सर्वव्यापी हैं, उसकी सामर्थ्य सर्वव्यापी है, उसकी बुद्धि सर्वव्यापी है, और उसका अधिकार सर्वव्यापी है। इन व्यवस्थाओं और नियमों में से प्रत्येक उसके कर्मों का मूर्त रूप है और प्रत्येक उसकी बुद्धिमत्ता और अधिकार को प्रकट करता है। कौन खुद को उसके प्रभुत्व से मुक्त कर सकता है? और कौन उसकी अभिकल्पनाओं से खुद को छुड़ा सकता है? सभी चीज़ें उसकी निगाह के नीचे मौजूद हैं, और इतना ही नहीं, सभी चीज़ें उसकी संप्रभुता के अधीन रहती हैं। उसके कर्म और उसकी सामर्थ्य मानवजाति के लिए इस तथ्य को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं छोड़ती कि वह वास्तव में मौजूद है और सभी चीज़ों पर संप्रभुता रखता है। उसका अस्तित्व और अधिकार इस बात से निर्धारित नहीं होता कि वे मनुष्य द्वारा पहचाने और समझे जाते हैं या नहीं। केवल वही मनुष्य के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जानता है, और केवल वही मानवजाति के भाग्य का निर्धारण कर सकता है। चाहे तुम इस तथ्य को स्वीकार करने में सक्षम हो या न हो, इसमें ज्यादा समय नहीं लगेगा, जब मानवजाति अपनी आँखों से यह सब देखेगी, और परमेश्वर जल्दी ही इस तथ्य को साकार करेगा। मनुष्य परमेश्वर की आँखों के सामने जीता है और मर जाता है। मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के लिए जीता है, और जब उसकी आँखें आखिरी बार बंद होती हैं, तो इस प्रबंधन के लिए ही बंद होती हैं। मनुष्य बार-बार, आगे-पीछे, आता और जाता रहता है। बिना किसी अपवाद के, यह परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी अभिकल्पना का हिस्सा है। परमेश्वर का प्रबंधन कभी रुका नहीं है; वह निरंतर अग्रसर है। वह मानवजाति को अपने अस्तित्व से अवगत कराएगा, अपनी संप्रभुता में विश्वास करवाएगा, अपने कर्मों का अवलोकन करवाएगा, और अपने राज्य में वापस लौट जाएगा। यही उसकी योजना और कार्य है, जिनका वह हजारों वर्षों से प्रबंधन कर रहा है।
परमेश्वर का प्रबंधन-कार्य संसार की उत्पत्ति से ही प्रारंभ हुआ, और मनुष्य इस कार्य के केंद्र में स्थित हैं। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने सभी चीजों की सृष्टि मानव जाति के लिए ही की है। उनका प्रबंधन कार्य हमेशा सतत रहा है, हजारों वर्षों से फैला हुआ है। इसलिए, उन्हें मानव अस्तित्व के लिए और अधिक चीजों का सृजन करना पड़ा है, जैसे कि सूर्य, चंद्रमा, सभी प्रकार के जीव, भोजन और एक अनुकूल पर्यावरण। यही परमेश्वर के प्रबंधन का प्रारंभ था।
इसके बाद, परमेश्वर ने मनुष्य को शैतान के हाथों में सौंप दिया, और मनुष्य शैतान के अधिकार क्षेत्र में रहने लगा, जिससे परमेश्वर के प्रथम युग के कार्य की शुरुआत हुई: व्यवस्था के युग की कहानी...। व्यवस्था के युग के दौरान कई हजार सालों में, मानव जाति व्यवस्था के युग के मार्गदर्शन की आदि हो गई और उसे हलके में लेने लगी। धीरे-धीरे मनुष्य ने परमेश्वर की देखभाल छोड़ दी, और इसलिए, व्यवस्था का अनुसरण करते हुए लोग मूर्तिपूजा और बुरे कर्म भी करने लगे। वे यहोवा की सुरक्षा से वंचित थे और केवल मंदिर की वेदी के सामने अपना जीवनयापन कर रहे थे। वास्तव में, परमेश्वर का कार्य उन्हें बहुत पहले छोड़ चुका था, और हालाँकि इस्राएली अभी भी व्यवस्था से चिपके हुए थे और यहोवा का नाम लेते थे, यहाँ तक कि गर्व से विश्वास करते थे कि केवल वे ही यहोवा के लोग हैं और वे यहोवा के चुने हुए हैं, किंतु परमेश्वर की महिमा ने उन्हें चुपके से त्याग दिया था।
जब परमेश्वर अपना कार्य करता है, तो वह हमेशा चुपचाप एक स्थान को छोड़ कर धीरे से दूसरे स्थान पर अपना नया कार्य प्रारंभ कर देता है। यह उन लोगों को अविश्वसनीय लगता है, जो सुन्न होते हैं। लोगों ने हमेशा पुरानी बातों को सँजोया है और नई, अपरिचित चीजों से शत्रुता बरती है या उन्हें विघ्न माना है। इसलिए, जो कुछ भी नया कार्य परमेश्वर करता है, प्रारंभ से बिलकुल अंत तक, मनुष्य समस्त चीज़ों में अंतिम होता है, जो इसे जान पाता है।
जैसा कि हमेशा से हुआ है, व्यवस्था के युग में यहोवा के कार्य के बाद परमेश्वर ने अपना दूसरा चरण प्रारंभ किया: मनुष्य के रूप में आकर, दस, बीस साल के लिए, विश्वासियों के बीच बोलते और अपना कार्य करते हुए। फिर भी, बिना किसी अपवाद के, कोई भी इस बात को समझ नहीं पाया कि वह देहधारी परमेश्वर था। समस्यात्मक ढंग से, पौलुस नाम का एक व्यक्ति प्रकट हुआ, जिसने परमेश्वर के साथ घातक शत्रुता की। यहाँ तक कि मार डाले जाने के बाद भी, पौलुस ने अपना पुराना स्वभाव नहीं बदला और परमेश्वर का विरोध किया। पौलुस ने अपने कार्यकाल के दौरान कई धर्मपत्रियाँ लिखीं; दुर्भाग्य से, बाद की पीढ़ियाँ उन धर्मपत्रियों को परमेश्वर के वचनों के रूप में स्वीकार किया और उन्हें गलती से परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन समझ लिया। पवित्रशास्त्र के आगमन के बाद से यह एक घोर अपमान है! और क्या यह गलती मनुष्य की परम मूर्खता की वजह से नहीं हुई थी? वे नहीं के बराबर जानते थे कि अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य के अभिलेखों में मनुष्य की धर्मपत्रियाँ या आध्यात्मिक लेख परमेश्वर के कार्य और वचनों के रूप में शामिल नहीं होने चाहिए। परंतु यह विषयांतर है, इसलिए आओ, हम अपने मूल विषय पर लौटें। जैसे ही परमेश्वर के कार्य का दूसरा चरण पूरा हुआ—सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद—मनुष्य को पाप से बचाने (अर्थात मनुष्य को शैतान के हाथों से छुड़ाने) का परमेश्वर का कार्य संपन्न हो गया। और इसलिए, उस क्षण के बाद से, मानवजाति को केवल प्रभु यीशु को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करना था, और उसके पाप क्षमा कर दिए जाते। मोटे तौर पर, मनुष्य के पाप अब उसके द्वारा उद्धार प्राप्त करने और परमेश्वर के सामने आने में बाधक नहीं रहे थे और न ही शैतान द्वारा मनुष्य को दोषी ठहराने का कारण रह गए थे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर स्वयं ने वास्तविक कार्य किया था, उसने पापमय देह के समान बनकर उसका अनुभव किया था, और परमेश्वर स्वयं ही पापबलि था। इस प्रकार, मनुष्य सलीब से उतर गया, परमेश्वर के देह—इस पापमय देह की समानता के जरिये छुड़ा और बचा लिया गया। और इसलिए, शैतान द्वारा बंदी बना लिए जाने के बाद, मनुष्य परमेश्वर के सामने उसका उद्धार स्वीकार करने के एक कदम और पास आ गया। बेशक, कार्य का यह चरण व्यवस्था के युग में परमेश्वर के प्रबंधन से अधिक गहन और अधिक विकसित था।
परमेश्वर का प्रबंधन ऐसा है: मनुष्य को शैतान के हवाले करना—मनुष्य, जो नहीं जानता कि परमेश्वर क्या है, सृष्टिकर्ता क्या है, परमेश्वर की आराधना कैसे करें, या परमेश्वर के प्रति समर्पित होना क्यों आवश्यक है—और शैतान को उसे भ्रष्ट करने देना। कदम-दर-कदम, परमेश्वर तब मनुष्य को शैतान के हाथों से बचाता है, जबतक कि मनुष्य पूरी तरह से परमेश्वर की आराधना नहीं करने लगता और शैतान को अस्वीकार नहीं कर देता। यही परमेश्वर का प्रबंधन है। यह किसी मिथक-कथा जैसा और अजीब लग सकता है। लोगों को यह किसी मिथक-कथा जैसा इसलिए लगता है, क्योंकि उन्हें इसका भान नहीं है कि पिछले हजारों सालों में मनुष्य के साथ कितना कुछ घटित हुआ है, और यह तो वे बिलकुल भी नहीं जानते कि इस ब्रह्मांड और नभमंडल में कितनी कहानियाँ घट चुकी हैं। इसके अलावा, यही कारण है कि वे उस अधिक आश्चर्यजनक, अधिक भय-उत्प्रेरक संसार को नहीं समझ सकते, जो इस भौतिक संसार से परे मौजूद है, परंतु जिसे देखने से उनकी नश्वर आँखें उन्हें रोकती हैं। वह मनुष्य को अबोधगम्य लगता है, क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार या परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य की महत्ता की समझ नहीं है, और वह यह नहीं समझता कि परमेश्वर अंततः मनुष्य को कैसा देखना चाहता है। क्या वह उसे शैतान द्वारा बिलकुल भी भ्रष्ट न किए गए आदम और हव्वा के समान देखना चाहता है? नहीं! परमेश्वर के प्रबंधन का उद्देश्य लोगों के एक ऐसे समूह को प्राप्त करना है, जो उसकी आराधना करे और उसके प्रति समर्पित हो। हालांकि ये लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं, परंतु वे अब शैतान को अपने पिता के रूप में नहीं देखते; वे शैतान के घिनौने चेहरे को पहचानते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं, और वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने के लिए उसके सामने आते हैं। वे जान गए हैं कि क्या बुरा है और वह उससे कितना विषम है जो पवित्र है, और वे परमेश्वर की महानता और शैतान की दुष्टता को भी पहचान गए हैं। इस प्रकार के मनुष्य अब शैतान के लिए कार्य नहीं करेंगे, या शैतान की आराधना नहीं करेंगे, या शैतान को प्रतिष्ठापित नहीं करेंगे। इसका कारण यह है कि यह एक ऐसे लोगों का समूह है, जो सचमुच परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिए गए हैं। यही परमेश्वर द्वारा मानवजाति के प्रबंधन की महत्ता है। इस समय परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य के दौरान मानवजाति शैतान की भ्रष्टता और परमेश्वर के उद्धार दोनों की वस्तु है, और मनुष्य वह उत्पाद है, जिसके लिए परमेश्वर और शैतान दोनों लड़ रहे हैं। चूँकि परमेश्वर अपना कार्य कर रहा है, इसलिए वह धीरे-धीरे मनुष्य को शैतान के हाथों से बचा रहा है, और इसलिए मनुष्य पहले से ज्यादा परमेश्वर के निकट आता जा रहा है।
और फिर एक युग आया, जो काम की अधिक व्यावहारिक चरण है, लेकिन फिर भी मानव के लिए स्वीकार करना सबसे कठिन है। यह इसलिए है क्योंकि जितना अधिक मनुष्य परमेश्वर के करीब आता है, उतना ही परमेश्वर का नजदीक होता है और परमेश्वर का चेहरा मनुष्य के सामने और भी स्पष्ट हो जाता है। मानवता के मुक्ति के बाद मनुष्य आधिकारिक रूप से परमेश्वर के परिवार में लौट आता है। मनुष्य सोचता है कि अब खुशी का समय आ गया है, लेकिन परमेश्वर द्वारा उस पर प्रबल हमला किया जाता है, जैसा कि किसी ने कभी सोचा भी नहीं था: यह एक पुनर्जन्म है, जिससे परमेश्वर के लोगों को आनंद हो। इस तरह के व्यवहार के अंतर्गत, लोगों के पास खुद के बारे में सोचने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता, "मैं, कई सालों तक खोया हुआ वह अनुभव हूँ, जिसे परमेश्वर ने कितना कुछ खर्च किया है, फिर भी परमेश्वर मुझ पर ऐसा व्यवहार क्यों करता है? क्या यह परमेश्वर का मुझ पर हँसने और मुझे उजागर करने का एक तरीका है?..." वर्षों के बाद, शुद्धिकरण और कठिनाइयों का सामना करने के बाद, मनुष्य मजबूत हो गया है, जैसे कि मौसम के प्रभाव से होता है। हालांकि मनुष्य ने अतीत की महिमा और रोमांस को खो दिया है, लेकिन उसने अनजाने में मानवता के सिद्धांतों को समझ लिया है, और वह परमेश्वर के मानवता को बचाने के लिए किए गए वर्षों का समर्पण समझ गया है। मनुष्य धीरे-धीरे अपनी क्रूरता से घृणा करने लगता है। वह अपनी अशिष्टता, परमेश्वर के प्रति सभी प्रकार की गलतफहमियों, और परमेश्वर से की गई अपनी सभी अनुचित माँगों से घृणा करने लगता है। समय को पीछे नहीं लाया जा सकता। अतीत की घटनाओं की यादें मनुष्य को खेदजनक स्मृतियों में बदल जाती हैं, और परमेश्वर के वचन और उसके प्रति प्रेम मनुष्य के नए जीवन में प्रेरक शक्ति बनते हैं। मनुष्य के घाव दिन-प्रतिदिन भरते हैं, उसकी सामर्थ्य वापस आती है, और वह उठ खड़ा होता है और सर्वशक्तिमान के चेहरे की ओर देखने लगता है... और यही पता चलता है कि परमेश्वर हमेशा मेरे साथ रहा है, और उसकी मुस्कान और उसका सुंदर चेहरा अभी भी प्रेरणादायक हैं। उसके दिल में अभी भी उसके द्वारा सृजित मानवता के लिए चिंता बनी रहती है, और उसके हाथ अभी भी उतने ही उत्साह से भरे हैं, जैसे कि वे प्रारंभ में थे। ऐसा लगता है मानो मनुष्य अदन के बाग में लौट आया हो, लेकिन इस बार मनुष्य साँप के प्रलोभन को नहीं सुनता, और अब वह यहोवा के चेहरे की ओर विमुख नहीं होता। मनुष्य परमेश्वर के सामने घुटने टेकता है, परमेश्वर के मुस्कुराते हुए चेहरे को देखता है, और उसे अपनी सबसे कीमती भेंट चढ़ाता है - हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर!
बाइबल में, यह धारणा अनेक वाक्यों में प्रकट होती है, जैसे कि:
यहूदी पुराण में सलमोन की कहानी, जिसमें सलमोन परमेश्वर की बुद्धिमति का अनुसरण करता है और उसके आदेशों का पालन करता है।
प्रार्थना के समय, यीशु ने अपने अनुयायियों को परमेश्वर के प्रबंधन की प्रार्थना करने के लिए सिखाया और उन्हें आत्मिक सशक्ति दी।
परमेश्वर के वचनों में बताया गया है कि जो लोग परमेश्वर के आदेशों का पालन करते हैं और उनका आश्रय लेते हैं, उन्हें परमेश्वर की रक्षा मिलती है।
इस धारणा का मुख्य संदेश है कि मानव जीवन की सफलता और शांति परमेश्वर के प्रबंधन और दिशा में निर्भर करती है। इससे हमें साहस, आत्मविश्वास, और सामर्थ्य का आभास होता है कि हम अपने जीवन को सही दिशा में ले जा रहे हैं और परमेश्वर की इच्छानुसार चल रहे हैं।
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